शहडोल में कार्यरत ट्रैक मैन का काम ही धर्म बन चुका है क्योंकि वह जीवन का अधिकतर समय रेल ट्रैक पर गुजारते हैं. उनके लिए रेलवे की सुरक्षा ही उनकी जिंदगी में सबसे प्रथम काम है और यह काम लगातार चलता ही रहता है चाहे फिर भीषण धूप हो, तेज गर्मी हो,या बरसात हो यह कार्य बिना रुके ट्रैक मैन द्वारा किया जाता है। अब जिंदगी का इतना समय जब इन लोगों द्वारा ट्रैक में बिताया जाता है लेकिन फिर भी आलम कुछ ऐसा है की नाही इनके लिए कोई ढंग का ऑफिस है और ना ही कोई स्टोर रूम है,और सामान रखने के लिए जो एक टूल रूम है पर उसका आकार इतना छोटा है कि 2 आदमी भी उसके भीतर मुश्किल से प्रवेश कर पाते हैं. और ऐसा नहीं है की रेलवे दौरे पर कोई नहीं आता बल्कि सक्षम अधिकारी दौरे पर आते भी हैं किंतु उनकी नजर इस अव्यवस्था की ओर नहीं पड़ती।
यह बात एक चिंता का विषय बन चुका है, एक ट्रैकमैन की ही ऐसी भर्ती है जो शुरुआत से और रिटायरमेंट तक एक ही पोस्ट पर जमा रहता है. इनके लिए किसी भी प्रकार का प्रमोशन नहीं है क्योंकि रेलवे विभाग द्वारा प्रमोशन जैसी कोई प्रक्रिया ट्रैकमैन के लिए बनाई ही नहीं गई है. यदि बाई चांस ऐसी कोई प्रक्रिया लाई भी जाती है तो उसमें 100 पदों के विरुद्ध दो या तीन पद ऐसे होते हैं जिसमे ट्रैकमैन विभागीय परीक्षा देकर किसी अन्य पद में प्रमोट हो सकते हैं. एक ट्रैकमैन की जिंदगी ट्रैक पर ही लुप्त होती जा रही है। और यह संख्या कोई कम नहीं है बल्कि हजारों की संख्या मे ट्रैक मैन कार्य कर रहे हैं . जो व्यक्ति ट्रैकमैन बनकर अपनी नौकरी की शुरुआत करते हैं वे ट्रैक मैन बनकर ही सेवानिवृत्त हो जाते हैं।
इस बात को शहडोल में पदस्थ ट्रैक मैन एसोसिएशन द्वारा सामने रखा भी गया है जिसमें उन्होंने लिमिटेड डिपार्टमेंटल कॉम्पिटेटिव एग्जाम प्रक्रिया को शामिल करने की मांग जताई है, जिससे उनमें से योग्य व्यक्ति आगे बढ़े और उच्च पदों में कार्य करने का अवसर मिल सके।
इनके द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा टूल किट का वजन 25 किलो रहता है और हाल कुछ ऐसा है कि कोई ट्रैकमैन यदि इसे स्टेशन से उठाता है तो इसे शहडोल के स्टेशन में ही जमा करना पड़ता है. जब इसके चलते इन ट्रैक मैन से पूछा गया तो उनका कहना था कि उन्हें टूल बॉक्स उठाने में कोई परेशानी नहीं है और कहने लगे कि यह उनका काम है, लेकिन दिक्कत तब आती है जब टूलबॉक्स को लेकर कई किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है परेशानी इसलिए भी है क्योंकि गर्मी में लोहे की सबल बहुत गर्म हो जाती है जिसके कारण इसे कंधे पर उठाना काफी कठिन हो जाता है, उन्होंने आगे यह भी कहा कि उन्हें दुख इस बात का है कि विभाग उन्हें छोटा कर्मचारी मानता है और साथ ही साथ बड़े अधिकारियों द्वारा उनका अपमान भी किया जाता है। हाल इतना बुरा है कि दुर्गम क्षेत्रों में भी टूल किट लेकर इन्हें जाना पड़ता है क्योंकि इन्हें रखने के लिए कोई स्टोर की व्यवस्था है ही नहीं जिसके कारण इस टूल किट को स्टेशन में वापस जमा करने के लिए इन्हें कई किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है।
मौसम के बदलाव को सबसे पहले ट्रैक मैन द्वारा ही महसूस किया जाता है, इनके द्वारा रेल ट्रैक की देखरेख की जाती है और साथ ही साथ कोई दुर्घटना होने पर इनकी उपस्थिति सबसे पहले देखी जाती है। इनके काम को देखते हुए इन्हें रेल विभाग का कमांडो भी कहा जाए तो भी कम है. उम्मीद यही होगी कि प्रशासन इस ओर एक नजर डाले और ट्रैकमैन की जीवन में भी सुधर हो सके।