भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 देश के हर नागरिक को जीने का अधिकार प्रदान करता है। इसी अनुच्छेद में 6 से 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा मुहैया कराने के मूलभूत अधिकार की बात भी कही गई है। कहने को तो यह दोनों अलग-अलग चीजें हैं।
2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद से शिक्षा के क्षेत्र में कई सुधार हुए, मुफ्त शिक्षा का नियम होने से स्कूल फीस की परेशानी भी हल हो गई। लेकिन साल 2019 में आई महामारी ने सारी स्थिति ही बदल कर रख दी। घर से बाहर जाने, ज्यादा लोगों के संपर्क में आने, स्कूल जाकर पढ़ाई करने से कोरोना संक्रमित होने का डर कायम हो गया।
देश भर में लॉकडाउन लगा दिया गया। बच्चों के स्कूल बंद हो गए, स्कूलों के विकल्प के तौर पर ऑनलाइन क्लासेज शुरू की गई लेकिन पढ़ाई की यह व्यवस्था कुछ कारगर साबित होती नहीं दिख रही है। भारत जैसे देश में ऑनलाइन पढ़ाई बहुत ही नया कॉन्सेप्ट है। शुरुआत में बच्चों के पास इसके लिए पर्याप्त साधन नहीं थे। स्मार्टफोन,इंटरनेट और पढ़ाई के लिए अलग कमरा नहीं होने जैसी समस्याएं सामने आई। किसी बच्चे के पिता ने उसकी पढ़ाई के लिए मोबाइल खरीदने अपनी भैस बेच दी तो कोई बच्चा मोबाइल खरीदने के लिए सोशल मीडिया पर मदद मांगता देखा गया।
शहरों में तो अभिभावक बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दे रहे हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों का नियमित पढ़ाई से नाता ही टूट गया है। माता-पिता खुद बच्चों की पढ़ाई और उन को स्कूल भेजने के प्रति उदासीन हो गए हैं। पिछले 2 सालों से स्कूल ठीक से संचालित नहीं हो रहे हैं। सरकार की ओर से ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयास तो किए गए लेकिन हमारे यहां बच्चों की शिक्षा और उन्हें सिखाने की प्रक्रिया ही कुछ ऐसी है जिसमें शिक्षकों और छात्रों को एक दूसरे के साथ आसपास रहने की जरूरत है।
ऑनलाइन शिक्षा में बच्चे इससे वंचित रहे। इसके अलावा बच्चों के स्कूल नहीं जाने से उनकी गतिविधियां कम हो गई। वें समय से उठना, अनुशासन में रहना भूल गए। अपने साथी बच्चों से मिलने, खेलने, साथ खाने से उनमे कई सकारात्मक चीजें विकसित होती है। वें सीखने और सोचने की क्षमता से लबरेज होते हैं। बाहर के माहौल में इतनी देर अकेले रहने से भी कई गुण जैसे कि आत्मविश्वास बढ़ता है।
अब जबकि स्कूल बंद है, बच्चों में इन सभी चीजों की कमी देखी जा सकती है। इतने समय स्कूल बंद रहने से बच्चे कुछ नया तो नहीं सीख पा रहे बल्कि पिछला पढ़ा हुआ भी भूलते जा रहे हैं। एक समस्या पेरेंट्स की मानसिकता भी है। कोरोना महामारी को काम से बचने का बहाना बना दिया गया है। बीच में स्कूल खुलने के बाद भी बच्चों को स्कूल भेजने की इच्छा नहीं देखी गई। बड़ी संख्या में parents बच्चो के संक्रमित होने से डर रहे हैं तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने पढ़ाई को गंभीरता से लेना ही छोड़ दिया है।
प्रारंभिक पढ़ाई बच्चों के सामाजिक और बौद्धिक विकास के लिए बहुत जरूरी है। इससे बच्चों में सीखने समझने की क्षमता विकसित होती है जिनकी बचपन में सबसे ज्यादा विकसित होने की संभावना रहती है।किसी भी महामारी को खत्म होने में वक्त लगता है। 2 साल पूरे होने को आए हैं। आगे अगर 4 साल इसी तरह नये वरिएंट आते रहे तो क्या यही स्थिति बनी रहेगी? क्या स्कूल बंद ही रहेंगे?
विदेशी स्कूलों में किस तरह सुनियोजित ढंग से बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दिया गया। किस तरह से कोरोना गाइडलाइन का पालन करते हुए हम लोग स्कूल खोल सकते हैं। इस पर ध्यान देना इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।