दो दशकों से ज्यादा का लंबा समय बीत गया है, लेकिन आज भी वन रैंक वन पेंशन गरमाया हुआ मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि सशस्त्र बलों में वन रैंक-वन पेंशन एक नीतिगत फैसला है और इसमें कोई संवैधानिक दोष नहीं है। केंद्र ने 2015 में वन रैंक वन पेंशन डिफेंस सेक्टर में लागू किया था। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने कहा कि ओआरओपी का केंद्र का नीतिगत फैसला मनमाना नहीं है और सरकार के नीतिगत मामलों में न्यायालय दखल नहीं देगा।
तो आइए समझते हैं पूरे मुद्दे को। आपको बता दें की वन रैंक वन पेंशन एक ऐसा मुद्दा है जिसे नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार अभियान के दौरान जोरों से उठाया था और पूर्व सैनिकों से वादा किया था कि उनकी सरकार बनी तो वो इसे लागू जरूर करेंगे। इसके बाद मोदी ने अपनी मन की बात में भी इस बात को कहा था। जब दो फौजी एक पद पर, एक समय तक सर्विस कर के रिटायर होते हैं पर उनके रिटायरमेंट में कुछ सालों का अंतर होता है और इस बीच नया वेतन आयोग भी आ जाता है, तो बाद में रिटायर होने वाले की पेंशन नए वेतन आयोग के अनुसार बढ़ जाती है। लेकिन पहले रिटायर हो चुके फौजी की पेंशन उसी अनुपात में नहीं बढ़ पाती। फौजियों की पेंशन की तुलना सामान्य सरकारी कर्मचारियों से नहीं की जा सकती क्योंकि एक ओर जहाँ सामान्य सरकारी कर्मचारी को 60 साल तक तनख्वाह लेने की सुविधा मिलती है, वहीं फौजियों को 33 साल में ही रिटायर होना पड़ता है और उनकी सर्विस के हालात भी अधिक कठिन होते हैं।
आजादी के पहले फौजियों की पेंशन तनख्वाह की करीब 80 प्रतिशत होती थी जबकि सामान्य सरकारी कर्मचारी की 33 प्रतिशत हुआ करती थी। भारत सरकार ने इसे सही नहीं माना और 1957 के बाद से फौजियों की पेंशन को कम की और अन्य क्षेत्रों की पेंशन बढ़ानी शुरू की।
बुधवार को पीठ ने निर्देश दिया कि ओआरओपी के फिर से निर्धारित करने की कवायद एक जुलाई, 2019 से की जानी चाहिए और पेंशनभोगियों को बकाया भुगतान तीन महीने में होना चाहिए। शीर्ष अदालत ने सेवानिवृत्त सैनिक संघ द्वारा दायर उस याचिका का निपटारा किया, जिसमें भगत सिंह कोश्यारी समिति की सिफारिश पर पांच साल में एक बार आवधिक समीक्षा की वर्तमान नीति के बजाय स्वत: वार्षिक संशोधन के साथ ‘वन रैंक वन पेंशन’ को लागू करने का अनुरोध किया गया था।